हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-19
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चातुर्मास : "धर्मध्यान" और "समाजध्यान" दोनों हो
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चातुर्मास निकट आ रहा है।जगह जगह धूमधाम से
वंदनीय महाराज साहेब के प्रवेश हो रहे हैं।प्रतिदिन गुरुओं के मुखारविंद से प्रवचन
श्रवण करने का सुअवसर मिलेगा,अपनी अपनी
सामर्थ्यानुसार सभी बंधू धर्मध्यान में रत हो कर दान-पुण्य कर चातुर्मास को सार्थक
करेंगे। कमोबेश हर वर्ष ऐसा ही होता है और पुरा समाज इस दरम्यान एकजुट हो सामूहिक
रूप से धर्माराधना करता है।इससे हमारे संस्कार,धर्म भावना
मज़बूत होती है,नयी पीढ़ी को अपने समाज,धर्म को और भी बेहतर तरीके से जानने-समझने का
मौक़ा मिलता है।
बदलते वक़्त में हमें इस मौके पर एक और चौका लगाने
की ज़रूरत है।वो है "धर्मध्यान" के साथ ही साथ "समाजध्यान" की
भी अनिवार्य रूप से शुरुआत की जाए।हमारा धर्म जितना श्रेष्ठ है,कहते हुए तकलीफ होती है,लेकिन उतना ही हमारा समाज आज आडम्बर,दिखावे और गलत परम्पराओं का शिकार भी है! धर्म और
समाज में जबरदस्ती घुसा दी गई आडम्बर-दिखावे की प्रवृति और कुछ मुर्ख हेकड़ीबाज़
लोगों की सनक ने आज विश्व के सर्वश्रेष्ठ धर्म के अनुयायिओं को अपने समाज के बारे
में गहनता से चिंतन करने को विवश कर दिया है!बात चाहे धार्मिक अनुष्ठानों को हो या विवाह, मृत्यु,जन्मदिन, जैसे ना गिने जा सकने वाले अनंत सामाजिक आयोजनों
की, दिखावे, आडम्बर और
चन्द लोगों के सनकीपन ने इन सभी को इतना विकृत रूप दे दिया है कि इससे ना केवल
हमारे महान धर्म की अवमानना हो रही है,अपितु समाज का
ढांचा भी बिखर और बिगड़ रहा है।समाज का आर्थिक रूप से कमजोर हिस्सा इन विकृतियों का
सबसे बड़ा शिकार हो कर और ज्यादा कमजोर, ऋणग्रस्त, अवसादग्रस्त हो रहा है और चुपचाप पीड़ा भोग रहा
है!
इधर आजकल हमारे समाज में लगभग अधेडावस्था को प्राप्त हो चुके पति-पत्नी में
विभिन्न पर्यटकस्थलों पर घुमते हुए "विचित्र मुद्राओं" और "विचित्र वेशभूषाओं" में, जिन्हें 'बेहूदा' और 'शर्मनाक' कहा जा सकता है, फोटो खिंचवा कर 'फेसबुक,इन्स्टाग्राम और वाट्सएप' जैसे सोशल मीडिया पर डालने का प्रचलन बढ़ चला है! इस उम्र में हीरो-हिरोइन सा 'मॉड' दिखने की लालसा ने बेशर्मी की सारी हदें जैसे पार कर ली है,और लोग शर्मिंदा होने
की बजाय 'एक दुसरे का अनुसरण' करने में लगे हैं! ये सरासर अपने संस्कारों का हनन
है,जिसे समझ कर स्व विवेक से नहीं रोका गया तो आने वाली पीढ़ी को हम कैसे और क्या
संस्कार दे पायेंगे?
ये बातें कोरी मज़ाक या लफ़्फ़ाज़ी भर नहीं है,बल्कि वो कटु सत्य है,जो समाज के हर चिंतक-शुभचिंतक की नज़र में है, और वो सहज ही उसे देख पा रहा है,किन्तु ना जाने
किस मजबूरीवश मौन हैं! क्या हमारे समाज के लक्ष्मीपुत्रों-सुसम्पन्न बंधुओं और
साधू-संतों का ये दायित्व नहीं बनता है कि वे चातुर्मास में "धर्मध्यान"
के साथ-साथ "सामाजध्यान" के ऊपर भी चिंतन-मनन करे और समाज को पुनः धर्म
के अनुरूप तथा संस्कारी बनाने में भी अपनी भूमिका का निर्वहन करे? एक मज़बूत,आदर्श,उच्च विचारोंयुक्त,रूढ़िवाद विहीन,स्वधर्म आचरणयुक्त तथा संस्कारित समाज ही अपनी
धर्मध्वजा को मज़बूती से थामे रख सकता है,उसे विश्व में
चहुँ और फहरा सकता है।
कुरीतियों,आडम्बरों,दिखावों और कुसंस्कारों से ग्रस्त समाज आखिर अपने धर्म
की रक्षा भी कैसे और कब तक कर पायेगा,क्योंकि वहां
तो आचरण ही धर्म विरूद्ध है! समाज के आगेवानों को,साधू संतों को, संपन्न लक्ष्मी पुत्रों को इन बातो पर अब
गम्भीरता से गौर करना चाहिए और इसी चातुर्मास से "धर्मध्यान" के साथ-साथ
"समाजध्यान" को भी अनिवार्य रूप से लागू करना चाहिए।चातुर्मास पर समाज
एक जगह इकट्ठा हो कर धर्माराधना करता ही है,प्रवचन सुनता
ही है।उसी जगह पर इकट्ठे हुए समाज के लोगों को एक निश्चित समय पर समाज/धर्म में
घुस आई तमाम बुराईयों/बीमारियों/कुसंस्कारों को तिलांजलि देने को प्रेरित करते हुए तथा अपने
संस्कारों की याद दिलाते हुए अपने समाज,धर्म और संस्कारों की रक्षा की शपथ दिलानी
चाहिए और विरोधियों को सवालों के तर्कसम्मत ज़वाब देकर संतुष्ट करना चाहिए। ये आज
की ज़रूरत है,क्योंकि धर्म,समाज,संस्कार और भगवान्
महावीरके मूल्यों को बचाये रखने के लिए इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
लेखक का मन्तव्य अपने धर्म,संत समुदाय और साधर्मिकों का अपमान करना कदापि नहीं है,बल्कि अपने धर्म और समाज के प्रति अपनी उच्च
भावनाओं को अपने बंधुओं के सम्मुख खुले दिल से रखना मात्र है।बावज़ूद इसके,कहीं पर भी कुछ भी कटु या धर्मविरुद्ध कहने में
आया हो,तो अंतर्मन से मिच्छामी दुक्कड़म।
अपन ने तो आईना दिखा दिया! अब आप चाहें तो इस आईने को तोड़ दें या फिर इसका प्रतिबिम्ब बदल दें! इससे ज्यादा कुछ और बोलूंगा तो फिर आप ही बोलोगे कि बोलता है!
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लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार-ब्लॉगर
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया' पाक्षिक
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया' पाक्षिक