हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-3
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हम पुण्यशाली है कि हमें जैन कुल और जैनधर्म मिला है।दुनिया के एक सर्वश्रेष्ठ धर्म के अनुयायी हो कर भी हम आज कहाँ हैं? क्या हमारी सोच,हमारा चिंतन,हमारे क्रियाकलाप उस श्रेष्ठ धर्म के अनुकूल है ? क्या हम अपने धर्म को सही अर्थों में समझ कर सचमुच सच्चे जैनी बन पाएं हैं ? क्या हम देव-गुरु की कृपा और अपने प्रबल पूण्य से मिली समृद्धि का अपने धर्म के सिद्धांतों के अनुरूप अपने धर्म,अपने समाज और साधर्मिकों के हित में उपयोग करना सीख पाएं हैं ? ये तीखे सवाल आज के हालातों से ही उपजे हैं।
हमने अपनी समृद्धि को अपने समाज अपने धर्म के हित में सही रूप से उपयोग किया ही नहीं।हमने अपनी समृद्धि को मात्र दिखावे,आडम्बर,पाखण्ड और झूठी वाहवाही लूटने तथा आपसी उठापटक और ऐक दूसरे को नीचा दिखाने का साधन मात्र बना दिया।शादी हो या धार्मिक आयोजन या फिर कोई भी सामाजिक आयोजन,हमने अपनी समृद्धि को पैसों के रूप में पानी की तरह बहाया है! दिखावा, आडम्बर,पाखण्ड और झूठी वाहवाही,आपसी उठापटक तथा अपने ही साधर्मिक भाई को नीचा दिखाने के लिए हमने मुक्त हस्त से लाखों-करोड़ों रुपयों को लुटा देना अपना मूल कर्तव्य मान लिया,और अपने वास्तविक-सच्चे कर्तव्यों को तिलांजलि देदी !
क्या कभी हमारा विवेक इतना जागृत हो पाया कि ढोलियों, बैंडबाजों, डेकोरेशनों, छप्पनभोगों, विलासी आयोजनों में लाखों-करोड़ों रुपये फूंकने की बजाय,उस पैसों से अपने धर्म,अपने समाज के लिए,अपने ज़रूरतमंद साधर्मिक भाई-बहनों की बेहतरीन शिक्षा,स्वास्थ्य तथा उनके जीवनस्तर को ऊंचा उठाने के लिए निःस्वार्थ भाव से,अपना प्रथम कर्तव्य मानते हुए प्रयास किये जाएं ? क्या हमने अपने महान संतों के बताये सच्चे पथ का मन से अनुसरण किया ? यक़ीनन नहीं ! अगर हमने ऐसा किया होता तो आज जैन धर्म,समाज तथा उसके अनुयायियों की स्थिति इस देश और दुनियां में कुछ और ही होती !उसे आँख दिखाने से पहले कोई भी दस बार सोचता !
ये ठीक है कि आपके पूण्य से मिला पैसा आपका है,उस पर आपका पूरा अधिकार है,किन्तु मुझे क्षमा करें,मात्र इस कारण ही आपको हमारे धर्म,समाज और रीतिरिवाजों को मनचाहे तरीके से विकृत करने का अधिकार नहीं मिल जाता।पूण्य से कमाई अपनी दौलत का उपयोग अगर जिनाज्ञा के विरुद्ध हो तो वो सरासर पाप ही है।पूण्य से मिली दौलत का उपयोग पुण्यकार्यों में करके ही दुगुना पूण्य अर्जित किया जा सकता है,समाज को,धर्म को नईं उंचाईयां प्रदान की जा सकती है,जिनवाणी को जन-जन के अंतर्मन में उतारा जा सकता है और जिनाज्ञा में जिया भी जा सकता है।
समृद्धि का तमाशा अब बंद होना ही चाहिए।समृद्धि को हमने अब तक बंटने-बांटने,अपनों को ही काटने,साधर्मिकों को छांटने में खूब उपयोग कर लिया !महावीर के नाम के निचे अलग पंथ ,अलग महाराजसाहब,अलग वस्त्र,अलग उपासना पद्धति, अलग उपाश्रय आदि-आदि अनेक करतब कर दिए ! क्या इन करतबों से जैन धर्म और उसके अनुयायियों का रत्ती भर भी भला हुआ ?
पुण्यशालियों,अब इन सब से बाहर निकल कर केवल मात्र जैन धर्म का हित चिंतन करने का वक़्त आ गया है।समृद्धि का अनिवार्य उपयोग नई पीढ़ी की उच्चतर शिक्षा,बेहतरीन स्वास्थ सुविधाओं और उनमें उच्च संस्कारों के संचयन में तथा ज़रूरतमंद साधर्मिक भाई-बहनों को समुचित सम्बल देने में होना चाहिए ताकि जैनधर्म की नींव मज़बूत रहे पीढ़ी दर पीढ़ी जैन धर्म का डंका बजता रहे। अन्यथा समृद्धि का उपयोग मात्र दिखावे,आडम्बर,पाखण्ड,झूठी वाहवाही,आपसी उठापटक और साधर्मिकों को नीचा दिखाने में ही होता रहा तो बीस-पच्चीस वर्षों बाद जैन धर्म कईं पंथों, समुदायों,उपाश्रयों, महारा जसाहबों, उपासना पद्धतियों आदि-आदि में बंट कर अपना अस्तित्व ही ढूंढता मिलेगा और हम समृद्ध होते हुए भी सबसे ज्यादा कंगाल होकर रह जाएंगे !
अपन ने जो सोचा-समझा,आपको बता दिया।अब आपको ठीक लगे तो आप भी इस पर विचार करें।मैं और ज्यादा कुछ बोलूंगा तो फिर आप ही बोलोगे कि बोलता है !
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लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'