Sunday 31 July 2016


हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-3
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    हम पुण्यशाली है कि हमें जैन कुल और जैनधर्म मिला है।दुनिया के एक सर्वश्रेष्ठ धर्म के अनुयायी हो कर भी हम आज कहाँ हैं? क्या हमारी सोच,हमारा चिंतन,हमारे क्रियाकलाप उस श्रेष्ठ धर्म के अनुकूल है ? क्या हम अपने धर्म को सही अर्थों में समझ कर सचमुच सच्चे जैनी बन पाएं हैं ? क्या हम देव-गुरु की कृपा और अपने प्रबल पूण्य से मिली समृद्धि का अपने धर्म के सिद्धांतों के अनुरूप अपने धर्म,अपने समाज और साधर्मिकों के हित में उपयोग करना सीख पाएं हैं ? ये तीखे सवाल आज के हालातों से ही उपजे हैं।

     हमने अपनी समृद्धि को अपने समाज अपने धर्म के हित में सही रूप से उपयोग किया ही नहीं।हमने अपनी समृद्धि को मात्र दिखावे,आडम्बर,पाखण्ड और झूठी वाहवाही लूटने तथा आपसी उठापटक और ऐक दूसरे को नीचा दिखाने का साधन मात्र बना दिया।शादी हो या धार्मिक आयोजन या फिर कोई भी सामाजिक आयोजन,हमने अपनी समृद्धि को पैसों के रूप में पानी की तरह बहाया है! दिखावा, आडम्बर,पाखण्ड और झूठी वाहवाही,आपसी उठापटक तथा अपने ही साधर्मिक भाई को नीचा दिखाने के लिए हमने मुक्त हस्त से लाखों-करोड़ों रुपयों को लुटा देना अपना मूल कर्तव्य मान लिया,और अपने वास्तविक-सच्चे  कर्तव्यों को तिलांजलि देदी ! 

     क्या कभी हमारा विवेक इतना जागृत हो पाया कि ढोलियों, बैंडबाजों, डेकोरेशनों, छप्पनभोगों, विलासी आयोजनों में लाखों-करोड़ों रुपये फूंकने की बजाय,उस पैसों से अपने धर्म,अपने समाज के लिए,अपने ज़रूरतमंद साधर्मिक भाई-बहनों की बेहतरीन शिक्षा,स्वास्थ्य तथा उनके जीवनस्तर को ऊंचा उठाने के लिए निःस्वार्थ भाव से,अपना प्रथम कर्तव्य मानते हुए प्रयास किये जाएं ? क्या हमने अपने महान संतों के बताये सच्चे पथ का मन से अनुसरण किया ? यक़ीनन नहीं ! अगर हमने ऐसा किया होता तो आज जैन धर्म,समाज तथा उसके अनुयायियों की स्थिति इस देश और दुनियां में कुछ और ही होती !उसे आँख दिखाने से पहले कोई भी दस बार सोचता !

     ये ठीक है कि आपके पूण्य से मिला पैसा आपका है,उस पर आपका पूरा अधिकार है,किन्तु मुझे क्षमा करें,मात्र इस कारण ही आपको हमारे धर्म,समाज और रीतिरिवाजों को मनचाहे तरीके से विकृत करने का अधिकार नहीं मिल जाता।पूण्य से कमाई अपनी दौलत का उपयोग अगर जिनाज्ञा के विरुद्ध हो तो वो सरासर पाप ही है।पूण्य से मिली दौलत का उपयोग पुण्यकार्यों में करके ही दुगुना पूण्य अर्जित किया जा सकता है,समाज को,धर्म को नईं उंचाईयां प्रदान की जा सकती है,जिनवाणी को जन-जन के अंतर्मन में उतारा जा सकता है और जिनाज्ञा में जिया भी जा सकता है।
     समृद्धि का तमाशा अब बंद होना ही चाहिए।समृद्धि को हमने अब तक बंटने-बांटने,अपनों को ही काटने,साधर्मिकों को छांटने में खूब उपयोग कर लिया !महावीर के नाम के निचे अलग पंथ ,अलग महाराजसाहब,अलग वस्त्र,अलग उपासना पद्धति, अलग उपाश्रय आदि-आदि अनेक करतब कर दिए ! क्या इन करतबों से जैन धर्म और उसके अनुयायियों का रत्ती भर भी भला हुआ ?  
     पुण्यशालियों,अब इन सब से बाहर निकल कर केवल मात्र जैन धर्म का हित चिंतन करने का वक़्त आ गया है।समृद्धि का अनिवार्य उपयोग नई पीढ़ी की उच्चतर शिक्षा,बेहतरीन स्वास्थ सुविधाओं और उनमें उच्च संस्कारों के संचयन में तथा ज़रूरतमंद साधर्मिक भाई-बहनों को समुचित सम्बल देने में होना चाहिए ताकि जैनधर्म की नींव मज़बूत रहे पीढ़ी दर पीढ़ी जैन धर्म का डंका बजता रहे। अन्यथा समृद्धि का उपयोग मात्र दिखावे,आडम्बर,पाखण्ड,झूठी वाहवाही,आपसी उठापटक और साधर्मिकों को नीचा दिखाने में ही होता रहा तो बीस-पच्चीस वर्षों बाद जैन धर्म कईं पंथों, समुदायों,उपाश्रयों, महाराजसाहबों, उपासना पद्धतियों आदि-आदि में बंट कर अपना अस्तित्व ही ढूंढता मिलेगा और हम समृद्ध होते हुए भी सबसे ज्यादा कंगाल होकर रह जाएंगे !
     अपन ने जो सोचा-समझा,आपको बता दिया।अब आपको ठीक लगे तो आप भी इस पर विचार करें।मैं और ज्यादा कुछ बोलूंगा तो फिर आप ही बोलोगे कि बोलता है !
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लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार 
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'
हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-2
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''भाईसा'ब, जय जिनेन्द्र।"
'जय जिनेन्दर सा जय जिनेन्दर।'

"और भाईसा'ब, क्या चल रहा है आजकल ?"
'बस मजे है जी।'

"बहुत बढ़िया भाईसा'ब। क्या सटर डे-सन्डे को आप:-
"हॉटल में खाना खाने जाते हैं ?"
'हाँ।'

"सिनेमा देखने भी जाते हैं ?"
'हाँ-हाँ ।'

"दोस्तों के साथ गपशप करने भी जाते ही होंगे ?"
'हाँ हाँ बिलकुल ।'

"अच्छा पिकनिक-सैरसपाटे पर भी जाते हैं ना ?"
'जी हाँ।'

"भाभी जी किटी पार्टी में भी जाती है ना ?"
'हाँ-हाँ जाती हैं ।'

"बच्चे डांस क्लास में भी जाते ही होंगे  ?"
'हाँ हाँ।'

"वीकेंड पर रिसोर्ट में भी जाना होता ही होगा ?"
'हाँजी,बिलकुल होता है ।'

"और शॉपिंग के लिए मॉल में भी जाते हैं ना ?"
'बिलकुल जी जाते ही हैं ।'

"बच्चे को क्रिकेटर बनाने के लिए मैदान में लेजाते हैं ?"
'हाँ हाँ।'

"अच्छा भाईसा'ब, आप कौन है ?"
'क्या मजाक कर रहे हैं !अजी सा'ब मैं जैन हूँ जैन !'

"अच्छा ! बहुत बढ़िया। सप्ताह में एकाध दिन आप अपने बच्चों को किसी जैन मंदिर में सेवा-पूजा करने ले जाते हैं ?"
'ऊं..ऊं...'

"क्या उन्हें जैन धर्म के सिद्धांतों और तीर्थंकरों के बारे में थोड़ा-थोड़ा समझाते हैं ?"
''ऊं..ऊं...ऊं......'

"क्या हुआ भाईसा'ब.......? बगले क्यूं झाँक रहे हो ?? मैंने कोई गलत सवाल पूछ लिया क्या ???
मिच्छामि दुक्कड़म जी !!!"

बस अब और नहीं बोलूंगा ! और बोलूंगा तो बोलोगे के बोलता है !
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लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार 
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'


Saturday 30 July 2016

हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-1
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एक अंगुली साधू -सन्तों की तरफ और बाकी तीन ?

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निवेदन: इस आलेख को कृपया वे ही बंधू पढ़ें जो सत्य से मुठभेड़ करने का हौसलारखते हो।कुछ कड़वी बाते कईयों का हाज़मा खराब कर सकती है,अतः आलेख की तरफ वही बढ़ें जो सत्य को पचाने की ताक़त रखते हो।



     कहते हैं कि हम एक ऊँगली किसी की तरफ करते हैं तो बाकी की तीन अंगुलियां स्वयं हमारी तरफ होती है! लेकिन हमें इसका भान ही नहीं है!

    आजकल साधू भगवंतों पर ऊँगली उठाना एक फैशन सा बन गया है।आज हम अपने पूजनीय साधू भगवंतों का त्याग,समर्पण,कठोर जीवन कम देखते हैं,उनसे धर्म का मर्म कम समझते हैं और उनकी तथाकथित कमजोरियों की जासूसी कर उसका भंडाफोड़ कर हीरो बनने का पराक्रम ज्यादा कर रहे हैं!हम ये भूल रहें हैं कि हम जिनकी कमजोरियों को ढूंढ कर हीरो बनजाने की तलाश में हैं,वे हर स्थिति में हमसे बेहतर हैं और उनके गुणों के शतांश तक भी पहुँचने की काबिलियत हमारी नहीं है!

    साधू भगवंतों का त्याग,समर्पण और कठोर जीवन हमारे सामने है,उसकी बराबरी दुनिया में शायद ही कोई और करपाता होगा।अपवाद आखिर कहाँ नहीं होते? समग्रता को छोड़ कर अपवादों को पकड़ना,मूर्खता की पराकाष्ठता नहीं तो और क्या है?99 अच्छाईयों का ज़िक्र छोड़कर,1 बुराई की चर्चा में डूब जाना,चुल्लू भर पानी में डूब मरने से अलग क्या है?साधू भगवंतों की तरफ एक अंगुली करके बाकी की तीन अँगुलियों का निशाना हम स्वयं होते हैं,क्या उस पर हमारा ध्यान जाता है?

    पाट पर बिराजमान साधुभगवंतों के सामने निचे ज़ाज़म पर ठसक कर बैठने वाले श्रावकों की पोल क्या साधू भगवंत मीडिया में खोलते हैं? कड़काकडक कपड़ों में टनाटन हो कर साधू भगवंतों के सामने बिराजने वाले हम श्रावकों मेसे आखिर कितने होंगे जो श्रावक धर्म की पूर्ण पालना करते होंगे?श्रावक होने का दम भरने वाले हम अगर अपनी जमात को टटोल दें तो मुश्किल से दशमलव एक प्रतिशत मिलेंगे, जो पूर्णतया श्रावक धर्म की पालना करते होंगे! दूसरी तरफ है पूजनीय साधू भगवंत,जिनमें मुश्किल से दशमल एक प्रतिशत होंगे जो जाने-अनजाने साधू धर्म से भटकते होंगे!तो फिर हम आखिर किस मुंह से अपने साधू भगवंतों में दिखने वाले अपवादों को सरेआम उछालते हैं? क्या जैसे साधू भगवंत अपने नियमों से बंधे हैं,और जाने अनजाने उन नियमों की अवहेलना से हमें एक बखेड़ा खड़ा करने का मौक़ा मिल जाता है,वैसे ही हम श्रावक क्या किसी नियमों से बंधे नहीं है?और उन नियमों की रोज रोज,सरेआम,और आगेवान बनकर,चकाचक-कड़काकडक धवल कपडे पहन कर, बगुलाभक्त बनकर धज्जियां उड़ाने के बाद भी क्या कोई बखेड़ा खड़ा करता है? नहीं,तो क्यों? क्या साधू भगवंत संघ पर आश्रित है इसलिए जाने-अनजाने कुछ भी गलती होते ही उनको सरेआम बेइज्जत करना शुरू कर देना चाहिए? एक बार,सिर्फ एक बार हम श्रावक अगर ,साधू भगवंतों को बेइज्जत करने से पहले ,अपने गिरेबां में झाँक लें तो वहां इतने छेद नज़र आएंगे कि हम खुद सेही नज़र मिलाने से भी कतराने लगेंगे! साधू-संतों के पीले-धवल वस्त्रों पर दाग ढूंढने से पहले हमें अपने चकाचक, कड़काकडक, टनाटन, धवल वस्त्रों के निचे छुपी भीषण कालिख को देखना होगा और साधू भगवंतों के गुणों से शतांश ही सही,लेने की कोशिश करनी होगी,तभी हम जैन धर्म और समाज को कुछ दे पाएंगे. हमारे साधू भगवंत तो महावीर की वाणी को जीवन में उतार कर अपना जीवन जीते हैं,और हम श्रावक भगवान् महावीर की वाणी को ज़ाज़म पर बैठ कर सुनने तक ही सिमित है!किसी को इस पर संशय हो तो ज़रा अपने दिल पर हाथ रख कर अभी पूछ ले,प्रत्युत्तर मिल जाएगा!

    हमारा साधू समुदाय बहुत ज्ञानी,विवेकशील है और उनके समुदाय में अगर कहीं कुछ जाने-अनजाने गलत होता है तो वे अपने स्तर पर उससे निपटने की क्षमता भी रखते हैं।संघ भी ऐसी बातों को उनके संज्ञान में लाकर शान्ति पूर्वक समस्याओं को सुलझा सकता है।घर के मामलों को सरेआम उछालने से धर्म और समाज का क्या भला हो सकता है?

साधू भगवंत तो अपनी आत्मा के साथ साथ पुरे समाज का कल्याण करने के प्रयास में जुटे रहेंगे ही और हम कीचड़ में खड़े रह कर कमल पर पत्थर फैंकने का पराक्रम कर खुद ही कीचड़ में धँसते चले जाएंगे,जिसे बचाने वाला शायद ही कोई होगा!
    अपन ने जो सोचा-समझा,आपको बता दिया।अब आपको ठीक लगे तो आप भी इस पर विचार करें।मैं और ज्यादा कुछ बोलूंगा तो फिर आप ही बोलोगे कि बोलता है !
(इस आलेख का मकसद किसी भी बंधू को ठेस पहुंचाना नहीं है,फिर भी कुछ कटु कहने में आया हो और किसी के अंतर्मन को ठेस पहुंची हो तो क्षमा याचना,इस आग्रह के साथ कि कृपया इस आलेख पर चिंतन ज़रूर करें।)
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लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार 
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'