Friday 26 August 2016

हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-10
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 पर्वाधिराज पर्व 'पर्युषण' में हावी ना हो 'बगुला भगत' का भाव !
         
     पर्वाधिराज पर्व पर्युषण आ रहा है।पर्युषण के दौरान हमारी भक्तिभावना,तप,देव दर्शन,गुरु निश्रा अपने चरम पर होगी।वर्षभर धर्म-कर्म से विमुख रहने वाले भी पर्युषण के दौरान मंदिर-उपाश्रय में बराबर हाज़री दे कर धर्म को समझने-जीवन में उतारने का प्रयास करेंगे। यानि पवित्र पर्व पर्युषण एक ऐसा मौका हमारे लिए लेकर आता है कि हम कमसे कम आठ दिनों तक तो देव-गुरु के सानिध्य में रह कर,उनके दर्शन-पूजन कर तथा जिनवाणी का श्रवण कर अपने जैन होने को सार्थक कर सकें,अपने धर्म की गहराई को जान-समझ सकें,अपने आचरण में जैनत्व को उतार कर भगवान महावीर के सच्चे अनुयायी बन सकें।
     मुझे क्षमा करें,लेकिन असल सवाल ये है कि क्या ऐसा हो पाता है? क्या पवित्र पर्व पर्युषण को हम सही अर्थों में समझ कर इस पवित्र पर्व का फायदा उठा पाते हैं? याकि इस पवित्र पर्व को भी हम मात्र लकीर पीटते हुए,खुद की पीठ थपथपाते हुए,और खुद को सबसे बड़ा धर्मधुरन्धर साबित करने की होड़ाहोडी में ही गुज़ार देते हैं? सवाल तीखा है,लेकिन मान कर चलिए,इन तीखे सवालों को अंतर्मन से टटोले बिना,इनसे मुठभेड़ किये बिना,इनका उत्तर खोजे बिना पर्वाधिराज पर्व पर्युषण का कोई अर्थ नहीं है! पर्युषण जैसे पवित्र पर्व पर भी अगर हम स्वयं के भीतर नहीं उतरे,अगर धर्म और आडम्बर में फर्क नहीं करते,अगर तीर्थंकरों को अंतर्मन में स्थापित कर जिनेश्वर की आज्ञा के मर्म को नहीं समझते तो फिर क्या पवित्र पर्व पर्युषण और क्या वर्ष के बाकी के दिन! सब दिन एक जैसे!!
     पर्युषण का पवित्र पर्व हमारे जीवन में आमूलचूल सकारात्मक परिवर्तन लाने में पूरी तरह सक्षम है। बस हमें इस पर्वाधिराज पवित्र पर्व पर्युषण के महत्व को समझना होगा।हमें आडम्बर से,ढकोसलों से,दिखावे से बाहर निकल कर,'बगुला भगत' की छवि से मुक्त हो कर,सच्चे मन से पूरी तरह से स्वयं के भीतर उतरना होगा।संतों के श्रीमुख से जिनवाणी का ध्यानमग्न होकर श्रवण करते हुए,तीर्थंकरों को अंतर्मन में स्थापित करते हुये जिनाज्ञा के मर्म को समझना होगा,उसे दैनिक जीवन में आत्मसात करना होगा,और तब जाकर पवित्र पर्व पर्युषण सचमुच सार्थक होगा!
     मैं जानता हूँ कईं बंधुओं को मेरी बातों से ठेस पहुंची होगी।उनसे *मिच्छामि दुक्कड़म* कहते हुए,इतना निवेदन अवश्य ही करूँगा,कि वे गहराई से मेरी बातों पर गौर करे। *सच कड़वा ज़रूर होता है,किन्तु उस छलावे से बेहतर होता है,जो मीठापन का अहसास करवाते हुए कर्मबंधन करवाता रहता है!* मौक़ा भी है और दस्तूर भी! तो आईये,इस बार पर्वाधिराज पवित्र पर्व पर्युषण पर कड़वे सच से रु-ब-रु होते हुए छलावे से बाहर निकले और खुद के भीतर उतर कर पवित्र पर्व पर्युषण में जीवन को धन्य बनाएं।
निवेदन: लेख को अच्छी भावना के साथ लिखा गया है।फिर भी कहीं भी,कुछ भी,जाने-अनजाने जिनाज्ञा विरूद्ध लिखा गया हो,तथा किसी भी भाई-बहन की भावनाओं को ठेस पहुंची हो तो अंतर्मन से मिच्छामि दुक्कड़म।
लेख समझ में आए व उपयोगी लगे तो अपने जैन मित्रों,सम्बन्धियों तथा ग्रुप्स में शेयर करना ना भूलें।
    अपन ने जो सोचा-समझा,आपको बता दिया।अब आपको ठीक लगे तो आप भी इस पर विचार करें।मैं और ज्यादा कुछ बोलूंगा तो फिर आप ही बोलोगे कि बोलता है !

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लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार 
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'

Saturday 20 August 2016

हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-9
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जीवन तो है ही संघर्ष का नाम !
   'क्या आप परेशान है? बिमारी,आर्थिक तंगी, असफलता,घरेलू झगड़े,आपका पीछा नहीं छोड़ रहे?बेटा-बेटी आपकी आज्ञा के विरुद्ध काम करते हैं?पति-पत्नी में झगड़ा होता रहता है?भाई-बहनों से मनमुटाव है?आपसी संपत्ति का झगड़ा है?भाड़े के फ्लेट में रहते हैं? व्यवसाय में अपने दोस्तों-सम्बन्धियों से पीछे रह गए हैं?लड़का-लड़की बड़े हो गए और उनकी शादी नहीं हो रही है?उधारी अटक गई है?नौकरी कर रहे हैं?अगर आप भी इनमेसे किसी एक या अनेक समस्याओं से ग्रस्त हैं और उनका समाधान चाहते हैं तो हमसे सम्पर्क करें।'
     इस तरह के तमाम विज्ञापन हमारे सामने तकरीबन रोज ही आते रहते हैं,जिनमें कईं 'ज्ञानीजन' तरह तरह के उपाय भी इन समस्याओं के हमें सुझाते हैं।इतना ही नहीं,हमारे आसपास के कईं मिलने वाले भी इन समस्याओं को दूर करने के बहुत से अज़ीबोगरीब रास्ते दिखाते हैं,जिनकी कोई विश्वसनीयता ही नहीं होती! कमाल देखिये कि ऊपर बताई गई समस्याओं मेंसे एक या अनेक हम मेंसे हर एक के जीवन में अवश्य होती ही है।किसी के जीवन में एक,तो किसी के जीवन में अनेक समस्याओं का होना कोई नईं बात नहीं है।नयी बात तो तब होगी,जबकि इस संसार में कोई एक,जी हाँ कोई एक इंसान ऐसा मिल जाए जो कहे कि मुझे किसी तरह की कोई परेशानी नहीं है,कि मेरे पास हर तरह का सुख है।और वास्तव में ऐसा हो भी! क्या ये सम्भव है? क्या जिंदगी मेसे हर तरह के दुःख को निकाल कर सिर्फ सुखों को ही कायम रखा जा सकता है? 
     जी नहीं,ये कदापि संभव ही नहीं है।जीवन तो है ही संघर्ष का नाम,जिसमें तरह-तरह के दुःख, परेशानियां आती ही रहती है।हाँ इसकी मात्रा में अवश्य फर्क हो सकता है।कोई कम दुखी,कम परेशान हो सकता है तो कोई ज्यादा।इन दुखों से,इन परेशानियों से हम बाहर निकलने का,कम करने का प्रयास कर सकते हैं और हमें करना भी चाहिए,जो हम करते भी हैं,किन्तु इसके लिए हमें किसी के बहकावे में आकर गलत मार्ग का चयन कभी नहीं करना चाहिए।पैसे लुटाने से और अंधविश्वासों की राह का पथिक बनने से अगर दुःख-परेशानियां-समस्याएं कम या खत्म हो जाती तो पैसे वालों और अंधविश्वासों का गोरखधंधा चलाने वालों की ज़िन्दगी में कोई दुःख-परेशानी होती ही नहीं और वे दुनिया में सबसे सुखी लोग होते !लेकिन क्या ऐसा है ? ज़रा आप अपने आसपास नज़र घुमा कर देखिये,हक़ीक़त आपको पता चल जायेगी!
     तो फिर आखिर इन तमाम तरह की परेशानियों-समस्याओं-दुखों को दूर करने का तरीका क्या है? तरिका है! तरीका ये है कि अपने तीर्थंकरों को,अपने आराध्य को याद करते हुए स्वयं में आत्मविश्वास, सकारात्मक सोच पैदा की जाए,दुःख और सुख दोनों को ज़िन्दगी का अनिवार्य हिस्सा मान कर सहज स्वीकार किया जाए,खुद दुःख, परेशानियां, समस्याओं से मुकाबला करते हुए भी प्राणी मात्र के दुखों,परेशानियों,समस्याओं को बांटने की भावना रखी जाए तथा दुखों-परेशानियों-समस्याओं को भगाने,दूर करने,कम करने का तथा सुखों को बुलाने का निरंतर पुरुषार्थ करते हुए जीवन बिताया जाए !जी हां,इन उपायों के अलावा और कोई उपाय नहीं है ज़िन्दगी को आराम से जीने का !दुखों,परेशानियों,समस्याओं को भी जीवन का अनिवार्य हिस्सा मानकर ही इनकी पीड़ा को कम किया जा सकता।जिंदगी जीने के लिए हवा का होना ज़रूरी है,लेकिन क्या हवा के झोंकें के साथ उड़कर आने वाले और आँख में घुस जाने वाले कचरे को रोका जा सकता है?जीने के लिए पानी का होना ज़रूरी है,लेकिन क्या सौ प्रतिशत शुद्ध और क्रिस्टल क्लियर पानी की ही उम्मीद कभी पूरी हो सकती है?जीने के लिए खाना आवश्यक है,किन्तु क्या बिना मिट्टी/घासपूस/कचरे के अनाज पैदा किया जा सकता है? तो फिर ज़िन्दगी से सिर्फ सुखों की ही उम्मीद क्यों?
     ज़िन्दगी में कचरा,मिट्टी,घासपूस की तरह दुःख, परेशानियां,समस्याएं भी आती ही रहेगी,इन्हें दूर करते रहिये......फिर आएगी......फिर दूर कीजिए......फिर आएँगी......फिर दूर कीजिये ! ज़िन्दगी जीने का इससे बेहतर,सलीकेदार और सच्चा तरीका दुसरा है भी नहीं!
     अपन ने जो सोचा-समझा,आपको बता दिया।अब आपको ठीक लगे तो आप भी इस पर विचार करें।मैं और ज्यादा कुछ बोलूंगा तो फिर आप ही बोलोगे कि बोलता है !

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लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार 
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'

Wednesday 17 August 2016

हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-8
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तीर्थयात्रा और चटोरापन !

    
     तीर्थयात्रा और चटोरेपन में यूँ तो कुछ भी सामंजस्य नहीं है,किन्तु हमने इसमें भी मेल कर रखा है,तथा तीर्थयात्रा में भी आपनी जिह्वा को काबू में ना रखते हुए अपने चटोरेपन को हावी होने देते हैं!
    वर्ष में एकाध बार हम मेसे अधिकतर लोग तीर्थयात्रा करने,देवदर्शन करने सपरिवार अथवा मित्रों,सगे सम्बन्धियों के साथ निकलते हैं।अच्छी बात है।हमें ऐसी यात्रा पर जाना ही चाहिए। किन्तु क्या वास्तव में हम ये पवित्र भावना लेकर निकलते हैं और उसे पूरा करते हैं?
     मुझे माफ़ करें,लेकिन हक़ीक़त ये हैं कि हम मेसे अधिकाँश लोग तीर्थयात्रा की आड़ में अपने चटोरेपन की भूख शांत करते रहते हैं और पूण्य कमाने की बजाय पापकर्मों के भागी बनते हैं।तीर्थस्थानों पर बनी भोजनशाला के खाने पर हम नाक-भौं सिकोड़ते हैं,जबकि सच तो ये है कि तीर्थस्थलों का खाना,भगवान का प्रसाद होता है और अतुलनीय होता है।जबकि हम उसका तिरस्कार कर,बाहर मिलने वाली पानीपूरी, पावभाजी,वडापाव,सोडा-शर्बत-शिकंजी पर ऐसे टूट पड़ते हैं जैसे बरसों से कोई हमें ज़बरदस्ती आयम्बिल करवा रहा हो और आज ही ये चटपटा खाने को मिल रहा हो!तीर्थस्थानों के बाहर इन स्टॉलों पर हम भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार किये बिना,रात और दिन का ध्यान किये बिना,बिना छने,बासी पदार्थों का आँख बंद कर चटखारे लेलेकर उपभोग करते हैं!क्या इससे हमें तीर्थयात्रा का लाभ मिल पाता है?अरे,हम शहरों में रहते हैं और बारह महीनों वहां रात-आधी रात,भक्ष्य-अभक्ष्य खाते ही हैं,तो फिर कमसेकम तीर्थस्थलों पर तो क्या हमें अपने चटोरेपन पर काबू नहीं रखना चाहिए?
     तीर्थयात्रा का तो असली आनंद तब है,जबकि हम भगवानजी के दर्शन-सेवापूजा करें, वहां की भोजनशाला में भोजन को प्रसाद मानकर ग्रहण करें,और यात्रा के दौरान गाँवों में अपने किसी ज़रूरतमंद साधर्मिक भाई की गुप्त रूप से,बिना प्रचार किये,स्नेह पूर्वक किसी रूप में सहायता कर आएं,या फिर किसी भी ज़रूरतमंद प्राणिमात्र को मदद करदें! तीर्थयात्रा पर निकले हैं तो मौज़-मज़ा-पिकनिक-चटोरेपन को एक तरफ रखिये और धर्म को सही रूप में चरितार्थ कीजिए।
     भगवान् आखिर भगवान् है,और उसके नाम पर हम जो भी कर रहे हैं,उस पर सतत उसकी नज़र है!अब ये हम पर है कि हम पूण्य कमाएं या पापकर्म करें!
अपन ने जो सोचा-समझा,आपको बता दिया।अब आपको ठीक लगे तो आप भी इस पर विचार करें।मैं और ज्यादा कुछ बोलूंगा तो फिर आप ही बोलोगे कि बोलता है !

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लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार 
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'

हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-7
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आओ भगवान् की परीक्षा लें!
    इस लेख का शीर्षक पढ़ कर ही कईं बंधुओं की भवें तन गई होगी!कईंयों ने मन ही मन में सोचा होगा कि ये कौन तुर्रमखां है तो भगवान् की परीक्षा लेने निकल पडा है!कईं अति उत्साही बंधू लेख का शीर्षक पढ़ कर ही,बिना लेख की अंतिम पंक्ति तक पहुंचे ही,कोई दनदनाती टिप्पणी ठोंक कर लेखक को चारों खाने चित्त करने का भाव लिए उखड जायेंगे!लेकिन मेरा विनम्र निवेदन है कि कृपया लेख को पूरा पढ़े.अंतिम पंक्ति तक पहुँचते पहुँचते अपने गिरेबान में झाँक कर आप स्वयं भगवान् के बड़े परीक्षक ना साबित हो जाओ,तो कहना!
     हमने भगवान् को बंधुआ मजदूर मान लिया है,जो हमारे इच्छित काम हर हालत में करेगा ही!हमने भगवान् को वो सरकारी बाबू भी मान लिया है,जो कुछ ले देकर हमारे काम कर ही देगा!ये कैसी सोच है हमारी?भगवान् को भगवान् मानने की समझ अब तक हममें क्यूँ ना पैदा हो पायी?भगवान् से से आखिर क्यूँ हमने स्वार्थ का रिश्ता बना लिया?मेरे ये प्रश्न आपको चौंका रहे  होंगे,किन्तु आप अगर शांत चित्त से विचार करेंगे तो आपको ये प्रश्न सहज लगने लगेंगे.
     भगवान की प्रतिमा के सम्मुख खड़े हो हम क्या करते हैं?क्या हम वाकई वही करते हैं जो हमें करना चाहिए?क्या हम प्रतिमा के सम्मुख संसार की झंझटों को छोड़ कर,वास्तविक प्रार्थना कर पाते हैं?
     हम भी बड़े अजीब लोग है!भगवान् कहते हैं संसार के झंझटों में मत पड़ो.हम उसकी सुनते नहीं,बल्कि उसको भी संसार के झंझटों में खींच लेने की कोशिश करते रहते हैं! उससे मन की शांन्ति नहीं मांगते,जो कि वे देने में सक्षम में, अपितु उनसे धन, दौलत, शौहरत, संतान, गाडी, बंगला, सट्टे में जीत, दो नम्बरी धंधे में सफलता, दुश्मनों का सफाया....आदि आदि ना जाने क्या क्या बेतुकी चीजें मांगते रहते हैं, और वो भी उसकी परीक्षा लेते हुए! भगवान् अगर आपने मेरा ये काम नहीं किया तो मेरा आपसे विश्वास उठ जाएगा, मैं आपके द्वार फिर कभी नहीं आउंगा! और दुसरे रूप में कहें तो भगवान् आप मेरा काम कर देंगे तो में फलाने फलाने दिन आपके दर्शन करने आउंगा! भक्त, ये भगवान् की कैसी परीक्षा भाई? और उससे भी आगे बढ़ें तो, भगवान को लालच देकर, सरकारी बाबू की तरह कुछ ले देकर काम करवाने में भी हमारा कोई सानी नहीं! ये काम कर दिया तो इतने का प्रसाद चढाउंगा, ये काम कर दिया तो 4-6 बसें लेकर तेरे धाम आउंगा, ये काम कर दिया तो तुझे हीरे-मोती का मुकुट चढाउंगा! कैसी सोच है हमारी? भगवान् को किस स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया हमने? संसार की जिन चीजों से उनका मोह भंग हो गया, हम उनसे वे ही चीजें अपने लिए मांगते हैं! और नहीं दें, तो भगवान् को परीक्षक बन कर चैलेन्ज, धमकी भी दे डालते हैं! इतना ही नहीं, एक कदम आगे बढ़ कर कुछ ले देकर उनसे काम करवाने की अपनी प्रवृति का प्रदर्शन कदम कदम पर करते रहते हैं!
     कृपया भगवान् को भगवान बने रहने दें! न तो उनके परीक्षक बनें और ना ही उन्हें सरकारी बाबू बनाने की कोशिश करें! मोह-माया और संसार को त्याग कर ही वे भगवान् बने हैं, और शांत मुद्रा में प्रतिमा के रूप में बिराजमान है. हमको अगर सांसारिक सुख(?) चाहिए तो हम पुरुषार्थ कर पाते रहें. हाँ, सांसारिक सुखों(?) को भोगते भोगते जब मन अशांत हो जाए, और शान्ति दुनिया में कहीं ना मिले, तो भगवान् से जा कर मांगे, वहां ज़रूर मिलेगी और भरपूर मिलेगी. भगवान् आखिर भगवान है! वे हमें अशांत करने वाली सांसारिक चीजें कैसे दे सकते हैं? उनके पास तो शान्ति जैसी सुखदायक अनमोल चीज़ का खजाना है, वो हमें मांगना भी नहीं पड़ता. वे ये खजाना हर क्षण लुटाते रहते हैं, अब ये हम पर है कि हम वो वास्तविक खज़ाना लेकर कितना मालामाल हो पाते हैं!
अपन ने जो सोचा-समझा,आपको बता दिया।अब आपको ठीक लगे तो आप भी इस पर विचार करें।मैं और ज्यादा कुछ बोलूंगा तो फिर आप ही बोलोगे कि बोलता है !

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लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार 
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'

Friday 5 August 2016

हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-6
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  भगवान को ''लेनदेन'' से क्या ''लेनादेना?''
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    मित्रों मिच्छामी दुक्कड़म। शुरुआत में ही मिच्छामी दुक्कड़म इसलिए,क्योंकि मैं जानता हूँ कि मेरेे इस लेख को पढ़कर *कईयों की त्योंरियां चढ़ जाने वाली है,कईयों को गुस्सा आजाने वाला है,कईयों की मुट्ठियाँ तन जाने वाली हैं!*लेकिन वे सब मुझे क्षमा करें,और ठन्डे दिमाग से सोचने की कृपा करें।

     चातुर्मास चल रहा है।अपने -अपने सामर्थ्यानुसार लोग धर्मध्यान में व्यस्त है।हम भी इस बात की तहेदिल से अनुमोदना करते हैं।उधर दूसरी तरफ धनबल का भी जोर है।जाजम पर बैठ कर बोलियाँ बोली जा रही है।हमें बोलियों से परहेज नहीं,वे धर्म से सम्बंधित व्यवस्थाएं करने के लिए ज़रूरी भी है।किन्तु दुःख इस बात का है कि बोलियों को धर्म का पैमाना बनाया जा रहा है!बोली लेने वालों को भाग्यशाली,पुण्यशाली की उपमाएं दी जा रही है,और वहां जाजम पर दर्शक बना बैठा अन्य साधर्मिक अपने आप को दुर्भाग्यशाली, पापी समझ कर पछतावा कर रहा है! वो साधारण साधर्मिक भाई, जिसकी अंटी में इतना पैसा नहीं है,कि वो जाजम पर आगे बैठ कर होड़ाहोडी कर सके,अपने आप को दीन-हीन समझने को मज़बूर है! क्या धर्म की जाजम पर ऐसा दृश्य शोभा देता है? क्या ये धर्म की मूल भावना के अनुकूल भी है?

     पैसों की बरसात कर के ही अगर भगवान् की सेवा-पूजा करने वाला ही पुण्यशाली-भाग्यशाली है, तो फिर बाकी के कौन है? क्या भगवान् की नज़र मैं भी ऐसा ही भेदभाव है,कि जो मेरा चढ़ावा ले,वो भाग्यशाली मेरा ख़ास और बाकी के सब दुर्भाग्यशाली है? ये सोच किसने विकसित की?
     तीर्थंकरों के चरित्र और धर्म के मूल को समझे तो धर्म के तराज़ू पर धन नहीं कर्म तोला जाता है।पुण्यशाली और भाग्यशाली का निर्धारण कर्मों से ही संभव है।अगर धन से ही कोई पुण्यशाली और भाग्यशाली होता तो दुनिया के सारे तस्कर,डॉन,और दो नंबरी कारोबारी ही पुण्यशाली-भाग्यशाली और भगवान् के अत्यधिक करीब होते,क्योंकि चढ़ावे में उनसे आगे आखिर कौन जाता!
     सत्य तो ये है कि बेईमानी के दस रुपये भगवान को चढाने से तो अच्छा है कि ईमान और भावों से भरे मन से भगवान् की प्रार्थना करली जाए! भगवान् को चढ़ावे से खुश करने की मानसिकता और उसका महिमामंडन,दरसल भगवान् को एक सरकारी कर्मचारी के बराबर खड़ा करने के पाप के समान ही है,क्योंकि चढ़ावे से तो सरकारी दफ्तरों में ही काम होते हैं,भगवान् के सम्मुख नहीं। भगवान् के लिए तो भावों से भरा होना ही पर्याप्त है।
     मैं बचपन से देखता आ रहा हूँ,कि जाजम पर बैठ कर भगवान् का खासमखास,नजदीकी होने की होडाहोड में चंद संपन्न लोग ही बाज़ी मारते हैं और बाकी के साधर्मिक,जो अपेक्षाकृत चाहे जितने ज्यादा धर्म के ज्ञाता हो,तीर्थंकरों के प्रति भावों से भरे उपासक हो,अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण ठन-ठन गोपाल बने,मन मसोस कर बैठे रह जाते हैं! तिर्थंकरों के दरबार में,धर्म की ज़ाज़म पर हम मेसे ही किसी के द्वारा किया गया ये कैसा न्याय है? अवश्य ही ये सिस्टम ना तो तीर्थंकरों द्वारा बनाया गया होगा और ना ही ज्ञानी साधू भगवंतों द्वारा! ये इज़ाद धनबलियों द्वारा ही की गई होगी जिसे हमने भी स्वीकार कर लिया,बिना ये देखे कि धर्म की मूल भावना क्या है! हमारे धर्म में त्याग की भावना सर्वोच्च है,क्या धर्म की खातिर धन खर्च करते हुए,"नाम" का त्याग नहीं कर सकते? क्या ये संभव नहीं  है कि कोई सुसम्पन्न-समृद्ध कभी कभार ऐसा भी करे कि चढ़ावा तो वो बोले और लाभ किसी ऐसे साधर्मिक को दे जो सच्चा धार्मिक प्रवृत्ति का तो है,लेकिन उसमें बोली बोलने का सामर्थ्य नहीं है।इससे दोहरा लाभ मिलता है।आपने धर्म की खातिर खर्चा किया तो आपको ये लाभ् तो मिला,साथ ही आपने त्याग की भावना से किसी सदसाधर्मिक को इसका लाभ दिया,तो आपको बोनस के रूप में भी तो इसका लाभ मिलेगा ही ! बेशक ये आज संभव प्रतीत नहीं हो रहा, किन्तु धर्म की अच्छी समझ और प्रभु के प्रति सच्ची लगन,इस परम्परा का उदय कर सकती है।जो लक्ष्मीपुत्र वास्तव में सच्चे मन से धर्म के लिए कुछ खर्च करना चाहता है,तो उसके मन में फिर नाम की लालसा क्यों होनी चाहिए?ये मैं नहीं कहता,ये तो निति,धर्म और साधू भगवंत भी कहते हैं।और अगर भावना ये है कि धर्म के नाम पर खर्च तभी किया जाए जबकि करने वाले का नाम हो,तो फिर मुझे क्षमा करें,ये धर्म नहीं स्वार्थ है,जिसे धनबल पर धर्म का जामा पहनाया जा रहा है!सवाल खड़ा हो सकता है,बल्कि हमेशा ही खड़ा किया ही जाता है,और गज़ब की बात ये कि अच्छे-अच्छे विद्वानों-आगेवानों द्वारा खड़ा किया जाता है कि नाम नहीं होगा तो पैसे कौन खर्च करेगा! विरोधाभास देखिये, नाम धर्म का लेना है और काम स्वार्थ का करना है,और इसमें हम सभी की मौन सहमति भी है!
     निवेदन इतना ही है कि विश्व के इस सर्वश्रेष्ठ, हमारे जैन धर्म को इसकी मूल भावना के अनुसार  बचाईये और बढाइये, ताकि आने वाली पीढ़ियों का हर एक साधर्मिक बंधू इस पर गर्व कर सके,इसमें बढ़चढ़ कर भाग ले सके,धर्म को पूर्ण समझ और समर्पण के साथ करते हुए उसे आने वाली पीढ़ियों के लिए उसके मूल और सर्वश्रेष्ठ रूप में आगे ले जा सके।


अपन ने जो सोचा-समझा,आपको बता दिया।अब आपको ठीक लगे तो आप भी इस पर विचार करें।मैं और ज्यादा कुछ बोलूंगा तो फिर आप ही बोलोगे कि बोलता है !

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लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार 
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'

Thursday 4 August 2016

हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-5
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   साधर्मिक को ऊपर उठाओ,

एक और एक ग्यारह बन जाओ।
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     बुद्धि से खूब काम ले लिया।अब विवेक जागृत करने का समय आ गया है।अब विवेक से काम लेने की ज़रुरत है।संथारा पर रोक के राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ हमारी एकजुटता अभूतपूर्व रही है।ये एकता दिनोंदिन मज़बूत होनी चाहिए क्योंकि संगठन में ही शक्ति है।
     कहने को हमारा जैन समाज सर्वाधिक समृद्ध-सम्पन्न समाज है,जहां पर धन-धान्य,परोपकार की कोई कमी नहीं हैं।किन्तु ये आधा सच ही है।आज भी हमारे समाज में कईं साधर्मिक भाई-बहन अत्यंत गरीबी में,दुःख भरा जीवन काटने को अभिशप्त है! ये स्थिति तब है,जबकि हमारा समाज अन्य लोगों एवं प्राणी मात्र के लिए करोड़ों रुपये खर्च करता है,उनके अभाव दूर करता है!क्या हमारे समाज को पहले अपने समाज की,अपने साधर्मिकों की चिंता नहीं करनी चाहिए? क्या उनको सक्षम बनाने,उनको समृद्ध,खुशहाल और सम्पन्न बनाने के लिए अपनी ताकत नहीं झोंकनी चाहिए? हमारे ही साधर्मिक भाई-बहन भुखों मरे,बिना इलाज़ के मर जाएँ,दरिद्रता में जीवन यापन करे और हम शादी-ब्याह,मौत-मरगत,सामुहिक भोज-प्रदर्शन पर अनाप शनाप खर्च कर जैन धर्म के जयकारे लगाते रहें तो क्या ये न्याय संगत और प्रभु महावीर के बताए मार्ग के अनुरूप होगा? आज समय आ गया है कि हम अपनी अंतरात्मा से ये सवाल करें,और गहराई में उतर कर,ध्यान से इसका उत्तर सुनें,उस पर चिंतन-मनन करें।
     जैन समाज सही रूप में तभी संपन्न-समृद्ध होगा,जबकि हर समृद्ध-संपन्न जैनी अपने भाई-बहन और अपने साधर्मिक के दुःख-दर्द में सहभागी बनेगा,उसे उससे उबारेगा,उसे एक व्यवस्थित प्लान के तहत अपने पैरों पर खड़ा होने में लिए दिल से मदद करते हुए उसे भी समृद्ध,खुशहाल और संपन्न बना देगा।भगवान महावीर के अनुयायियों के लिए ये बिलकुल भी कठिन काम नहीं है,क्योंकि उसकी कृपा से इस समाज के पास साधनों का कोई भी अभाव नहीं है।
     तो आईये,हम बुद्धि के साथ-साथ विवेक को भी जागृत करें और ज़रूरतमंद साधर्मिकों का हाथ थाम कर उन्हें भी सर उठा कर जीने के काबिल बनाएं।आखिर हमारी शोभा भी सकल समाज से ही है,तो समाज में कोई भी दुखी-परेशान-दरिद्र क्यूँ रहे!
      
अपन ने जो सोचा-समझा,आपको बता दिया।अब आपको ठीक लगे तो आप भी इस पर विचार करें।मैं और ज्यादा कुछ बोलूंगा तो फिर आप ही बोलोगे कि बोलता है !

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लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार 
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'

Tuesday 2 August 2016

हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-4
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चातुर्मास में "धर्मध्यान" और "समाजध्यान" दोनों हो
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    चातुर्मास निकट आ रहा है।जगह जगह धूमधाम से वंदनीय महाराज साहेब के प्रवेश होंगे,प्रतिदिन गुरुओं के मुखारविंद से प्रवचन श्रवण करने का सुअवसर मिलेगा,अपनी अपनी सामर्थ्यानुसार सभी बंधू धर्मध्यान में रत हो कर दान-पुण्य कर चातुर्मास को सार्थक करेंगे। कमोबेश हर वर्ष ऐसा ही होता है और पुरा समाज इस दरम्यान एकजुट हो सामूहिक रूप से धर्माराधना करता है।इससे हमारे संस्कार,धर्म भावना मज़बूत होती है,नयी पीढ़ी को अपने समाज,धर्म को और भी बेहतर तरीके से जानने-समझने का मौक़ा मिलता है।

    बदलते वक़्त में हमें इस मौके पर एक और चौका लगाने की ज़रूरत है।वो है "धर्मध्यान" के साथ ही साथ "समाजध्यान" की भी अनिवार्य रूप से शुरुआत की जाए।हमारा धर्म जितना श्रेष्ठ है,कहते हुए तकलीफ होती है,लेकिन उतना ही हमारा समाज आज आडम्बर,दिखावे और गलत परम्पराओं का शिकार भी है! धर्म और समाज में जबरदस्ती घुसा दी गई आडम्बर-दिखावे की प्रवृति और कुछ मुर्ख हेकड़ीबाज़ लोगों की सनक ने आज विश्व के सर्वश्रेष्ठ धर्म के अनुयायिओं को अपने समाज के बारे में गहनता से चिंतन करने को विवश कर दिया है!
    बात चाहे धार्मिक अनुष्ठानों की हो या विवाह, मृत्यु,जन्मदिन, जैसे ना गिने जा सकने वाले अनंत सामाजिक आयोजनों की, दिखावे, आडम्बर और चन्द लोगों के सनकीपन ने इन सभी को इतना विकृत रूप दे दिया है कि इससे ना केवल हमारे महान धर्म की अवमानना हो रही है,अपितु समाज का ढांचा भी बिखर और बिगड़ रहा है।समाज का आर्थिक रूप से कमजोर हिस्सा इन विकृतियों का सबसे बड़ा शिकार हो कर और ज्यादा कमजोर, ऋणग्रस्त, अवसादग्रस्त हो रहा है और चुपचाप पीड़ा भोग रहा है! ये बात कोरी मज़ाक या लफ़्फ़ाज़ी भर नहीं है,बल्कि वो कटु-क्रूर सत्य है,जो समाज के किसी भी चिंतक-शुभचिंतक की नज़र में है, और वो सहज ही उसे देख पा रहा है।क्या हमारे समाज के लक्ष्मीपुत्रों-सुसम्पन्न बंधुओं और साधू-संतों का ये दायित्व नहीं बनता है कि वे चातुर्मास में "धर्मध्यान" के साथ-साथ "सामाजध्यान" के ऊपर भी चिंतन-मनन करे और समाज को धर्म के अनुरूप पुनः बनाने में भी अपनी भूमिका का निर्वहन करे?
    एक मज़बूत,आदर्श,उच्च विचारोंयुक्त,रूढ़िवाद विहीन,स्वधर्म आचरणयुक्त समाज ही अपनी धर्मध्वजा को मज़बूती से थामे रख सकता है,उसे विश्व में चहुँ और फहरा सकता है। कुरीतियों,आडम्बरों,दिखावों से ग्रस्त समाज अपने धर्म की रक्षा भी कैसे और कब तक कर पायेगा,क्योंकि वहां तो आचरण ही धर्म विरूद्ध है! समाज के आगेवानों को,साधू संतों को, संपन्न लक्ष्मी पुत्रों को इन बातो पर अब गम्भीरता से गौर करना चाहिए और इसी चातुर्मास से "धर्मध्यान" के साथ-साथ "समाजध्यान" को भी अनिवार्य रूप से लागू करना चाहिए।चातुर्मास पर समाज एक जगह इकट्ठा हो कर धर्माराधना करता ही है,प्रवचन सुनता ही है।उसी जगह पर इकट्ठे हुए समाज के लोगों को एक निश्चित समय पर समाज/धर्म में घुस आई तमाम बुराईयों/बीमारियों को तिलांजलि देने को प्रेरित करते हुए शपथ दिलानी चाहिए और विरोधियों को सवालों के तर्कसम्मत ज़वाब देकर संतुष्ट करना चाहिए।ये आज की ज़रूरत है,क्योंकि धर्म और भगवान् महावीर के मूल्यों को बचाये रखने के लिए इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
    लेखक का मन्तव्य अपने धर्म,संत समुदाय और साधर्मिकों का अपमान करना कदापि नहीं है,बल्कि अपने धर्म और समाज के प्रति अपनी उच्च भावनाओं को अपने बंधुओं के सम्मुख खुले दिल से रखना मात्र  है।बावज़ूद इसके,कहीं पर भी कुछ भी कटु या धर्मविरुद्ध कहने में आया हो,तो अंतर्मन से मिच्छामी दुक्कड़म।
    अपन ने जो सोचा-समझा,आपको बता दिया।अब आपको ठीक लगे तो आप भी इस पर विचार करें।मैं और ज्यादा कुछ बोलूंगा तो फिर आप ही बोलोगे कि बोलता है !

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लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार 
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'