हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-10
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पर्वाधिराज पर्व 'पर्युषण' में हावी ना हो 'बगुला भगत' का भाव !
पर्वाधिराज पर्व पर्युषण आ रहा है।पर्युषण के दौरान हमारी भक्तिभावना,तप,देव दर्शन,गुरु निश्रा अपने चरम पर होगी।वर्षभर धर्म-कर्म से विमुख रहने वाले भी पर्युषण के दौरान मंदिर-उपाश्रय में बराबर हाज़री दे कर धर्म को समझने-जीवन में उतारने का प्रयास करेंगे। यानि पवित्र पर्व पर्युषण एक ऐसा मौका हमारे लिए लेकर आता है कि हम कमसे कम आठ दिनों तक तो देव-गुरु के सानिध्य में रह कर,उनके दर्शन-पूजन कर तथा जिनवाणी का श्रवण कर अपने जैन होने को सार्थक कर सकें,अपने धर्म की गहराई को जान-समझ सकें,अपने आचरण में जैनत्व को उतार कर भगवान महावीर के सच्चे अनुयायी बन सकें।
मुझे क्षमा करें,लेकिन असल सवाल ये है कि क्या ऐसा हो पाता है? क्या पवित्र पर्व पर्युषण को हम सही अर्थों में समझ कर इस पवित्र पर्व का फायदा उठा पाते हैं? याकि इस पवित्र पर्व को भी हम मात्र लकीर पीटते हुए,खुद की पीठ थपथपाते हुए,और खुद को सबसे बड़ा धर्मधुरन्धर साबित करने की होड़ाहोडी में ही गुज़ार देते हैं? सवाल तीखा है,लेकिन मान कर चलिए,इन तीखे सवालों को अंतर्मन से टटोले बिना,इनसे मुठभेड़ किये बिना,इनका उत्तर खोजे बिना पर्वाधिराज पर्व पर्युषण का कोई अर्थ नहीं है! पर्युषण जैसे पवित्र पर्व पर भी अगर हम स्वयं के भीतर नहीं उतरे,अगर धर्म और आडम्बर में फर्क नहीं करते,अगर तीर्थंकरों को अंतर्मन में स्थापित कर जिनेश्वर की आज्ञा के मर्म को नहीं समझते तो फिर क्या पवित्र पर्व पर्युषण और क्या वर्ष के बाकी के दिन! सब दिन एक जैसे!!
पर्युषण का पवित्र पर्व हमारे जीवन में आमूलचूल सकारात्मक परिवर्तन लाने में पूरी तरह सक्षम है। बस हमें इस पर्वाधिराज पवित्र पर्व पर्युषण के महत्व को समझना होगा।हमें आडम्बर से,ढकोसलों से,दिखावे से बाहर निकल कर,'बगुला भगत' की छवि से मुक्त हो कर,सच्चे मन से पूरी तरह से स्वयं के भीतर उतरना होगा।संतों के श्रीमुख से जिनवाणी का ध्यानमग्न होकर श्रवण करते हुए,तीर्थंकरों को अंतर्मन में स्थापित करते हुये जिनाज्ञा के मर्म को समझना होगा,उसे दैनिक जीवन में आत्मसात करना होगा,और तब जाकर पवित्र पर्व पर्युषण सचमुच सार्थक होगा!
मैं जानता हूँ कईं बंधुओं को मेरी बातों से ठेस पहुंची होगी।उनसे *मिच्छामि दुक्कड़म* कहते हुए,इतना निवेदन अवश्य ही करूँगा,कि वे गहराई से मेरी बातों पर गौर करे। *सच कड़वा ज़रूर होता है,किन्तु उस छलावे से बेहतर होता है,जो मीठापन का अहसास करवाते हुए कर्मबंधन करवाता रहता है!* मौक़ा भी है और दस्तूर भी! तो आईये,इस बार पर्वाधिराज पवित्र पर्व पर्युषण पर कड़वे सच से रु-ब-रु होते हुए छलावे से बाहर निकले और खुद के भीतर उतर कर पवित्र पर्व पर्युषण में जीवन को धन्य बनाएं।
निवेदन: लेख को अच्छी भावना के साथ लिखा गया है।फिर भी कहीं भी,कुछ भी,जाने-अनजाने जिनाज्ञा विरूद्ध लिखा गया हो,तथा किसी भी भाई-बहन की भावनाओं को ठेस पहुंची हो तो अंतर्मन से मिच्छामि दुक्कड़म।
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अपन ने जो सोचा-समझा,आपको बता दिया।अब आपको ठीक लगे तो आप भी इस पर विचार करें।मैं और ज्यादा कुछ बोलूंगा तो फिर आप ही बोलोगे कि बोलता है !
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लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'