हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-13
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आडम्बर का साइड इफेक्ट
"धापे" हुए लोगों की "भुक्खडता" !
जैन समाज को सम्पन्नता का वरदान मिला हुआ है। अपवादों को छोड़ दें तो जैन कुल में पैदा हुआ व्यक्ति प्रायः हर तरह से संपन्न ही होता है। जैन समाज द्वारा प्राणी मात्र के लिए दिल खोल कर दिया जाने वाला दान इसका उदाहरण है।खाने-पीने की अच्छी से अच्छी चीजों की प्रचुर मात्रा प्रायः जैनों के घर में हमेशा ही रहती है,और विविध व्यंजनों की भी कोई कमी नहीं रहती। इतना होने के बावजूद यदि हम खाने में छिना-झपटी करें,एक के ऊपर एक पडें, धक्का-मुक्की करें तो फिर अपने भीतर झाँकने की आवश्यकता है !
मुझे क्षमा करें,लेकिन संपन्न कहे जाने वाले अपने समाज की किसी भी शादी में हम चले जाएँ तो वहां पर खाने-पीने के स्टॉल्स पर जो माहोल,या कि भगदड़ मची दिखती है,वो सोचने को मजबूर कर देती है! अरे हम महावीर की संतान है,हमें महावीर का वरदान हैं ! हम अपने घरों में रोज ही अच्छा खाते-पीते हैं,फिर क्यूँ हम किसी शादी-समारोह में खाने-पीने के स्टॉल देखते ही बेकाबू हो जाते है?कहीं ये स्थिति भी आडम्बर का ही तो साइड इफेक्ट नहीं? यकीनन ये स्थिति भी आडम्बर का ही साईड इफेक्ट है!शादियों में सुबह से शाम तक नॉनस्टॉप चरने की व्यवस्था होती है जिसमें भक्ष्य-अभक्ष्य सभी तरह के देशी-विदेशी खाने के लार टपकाउ-पेट बिगाड़ू 'आईटमों' का इंतज़ाम कर अपने पैसों का प्रदर्शन किया जाता है!अरे जानवर भी पेट भरने के बाद एक भी कौर अतिरिक्त नहीं खाता,जबकि हम शादी-समारोह में मुफ़्त के खाने पर ऐसी बेरहमी से टूट पड़ते हैं जैसे बरसों से सिर्फ पानी पर ही गुज़ारा कर रहे हो! मुझे क्षमा करें,लेकिन ये नज़ारा शादी-सामारोहो में बहुत आम है,और मैनें कई "धापे हुए,तुर्रमखाओं" को यहां प्लेट लहराकर नूराकुश्ती करते देखा है! क्या यही महावीर की संतानों के गुण है?
पावभाजी हो,उत्तप्पम हो या फिर चाउमीन,मंचूरियन,आईसक्रीम,छिना-झपटी ऐसी दिखती है मानों ये चीजें कभी जिंदगी में खायी ही नहीं है या कि फिर कभी मिलने वाली नहीं है ! इतनी व्यग्रता क्यूँ ? एक संपन्न समाज का ये भुक्खड़ प्रदर्शन क्या शोभनीय है ? मुझे लिखते हुए दुःख होता है,लेकिन सच्चाई से आँखें नहीं चुराई जा सकती! और सच्चाई ये है कि इस में हमारी माताएं- बहने बाज़ी मारती हुयी हमेशा ही दिखती है!
त्याग-तपश्चर्या में हमारा कोई सानी नहीं,लेकिन हमें अब भी सार्वजनिक प्रसंगों पर व्यवहार में संयम बरतना सीखना होगा ! ऐसे प्रसंगों पर दुसरे समाजों के लोग भी शिरकत करते हैं और वे जब एक संपन्न समाज की छवि अपने दिमाग में रखते हुए हमें खाने के स्टॉलों पर छिना-झपटी करते देखते हैं तो क्या इसे ठीक कहा जा सकता है ??
कृपया विचार करें ।किसी को सच्चाई से ठेस पहुंची हो तो कृपया अपने आप को बदल कर लेख को पुनः पढ़ें,फिर ठेस नहीं पहुंचेगी!
अपन ने जो सोचा-समझा,आपको बता दिया।अब आपको ठीक लगे तो आप भी इस पर विचार करें।मैं और ज्यादा कुछ बोलूंगा तो फिर आप ही बोलोगे कि बोलता है !
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लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'