Saturday 24 September 2016

हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-13
-------------------------------------------

    आडम्बर का साइड इफेक्ट
"धापे" हुए लोगों की "भुक्खडता" !

     जैन समाज को सम्पन्नता का वरदान मिला हुआ है। अपवादों को छोड़ दें तो जैन कुल में पैदा हुआ व्यक्ति प्रायः हर तरह से संपन्न ही होता है। जैन समाज द्वारा प्राणी मात्र के लिए दिल खोल कर दिया जाने वाला दान इसका उदाहरण है।खाने-पीने की अच्छी से अच्छी चीजों की प्रचुर मात्रा प्रायः जैनों के घर में हमेशा ही रहती है,और विविध व्यंजनों की भी कोई कमी नहीं रहती। इतना होने के बावजूद यदि हम खाने में छिना-झपटी करें,एक के ऊपर एक पडें, धक्का-मुक्की करें तो फिर अपने भीतर झाँकने की आवश्यकता है !
    मुझे क्षमा करें,लेकिन संपन्न कहे जाने वाले अपने समाज की किसी भी शादी में हम चले जाएँ तो वहां पर खाने-पीने के स्टॉल्स पर जो माहोल,या कि भगदड़ मची दिखती है,वो सोचने को मजबूर कर देती है! अरे हम महावीर की संतान है,हमें महावीर का वरदान हैं ! हम अपने घरों में रोज ही अच्छा खाते-पीते हैं,फिर क्यूँ हम किसी शादी-समारोह में खाने-पीने के स्टॉल देखते ही बेकाबू हो जाते है?कहीं ये स्थिति भी आडम्बर का ही तो साइड इफेक्ट नहीं? यकीनन ये स्थिति भी आडम्बर का ही साईड इफेक्ट है!शादियों में सुबह से शाम तक नॉनस्टॉप चरने की व्यवस्था होती है जिसमें भक्ष्य-अभक्ष्य सभी तरह के देशी-विदेशी खाने के लार टपकाउ-पेट बिगाड़ू 'आईटमों' का इंतज़ाम कर अपने पैसों का प्रदर्शन किया जाता है!अरे जानवर भी पेट भरने के बाद एक भी कौर अतिरिक्त नहीं खाता,जबकि हम शादी-समारोह में मुफ़्त के खाने पर ऐसी बेरहमी से टूट पड़ते हैं जैसे बरसों से सिर्फ पानी पर ही गुज़ारा कर रहे हो! मुझे क्षमा करें,लेकिन ये नज़ारा शादी-सामारोहो में बहुत आम है,और मैनें कई "धापे हुए,तुर्रमखाओं" को यहां प्लेट लहराकर नूराकुश्ती करते देखा है! क्या यही महावीर की संतानों के गुण है?
   पावभाजी हो,उत्तप्पम हो या फिर चाउमीन,मंचूरियन,आईसक्रीम,छिना-झपटी ऐसी दिखती है मानों ये चीजें कभी जिंदगी में खायी ही नहीं है या कि फिर कभी मिलने वाली नहीं है ! इतनी व्यग्रता क्यूँ ? एक संपन्न समाज का ये भुक्खड़ प्रदर्शन क्या शोभनीय है ?  मुझे लिखते हुए दुःख होता है,लेकिन सच्चाई से आँखें नहीं चुराई जा सकती! और सच्चाई ये है कि इस में हमारी माताएं- बहने बाज़ी मारती हुयी हमेशा ही दिखती है! 
     त्याग-तपश्चर्या में हमारा कोई सानी नहीं,लेकिन हमें अब भी सार्वजनिक प्रसंगों पर व्यवहार में संयम बरतना सीखना होगा ! ऐसे प्रसंगों पर दुसरे समाजों के लोग भी शिरकत करते हैं और वे जब एक संपन्न समाज की छवि अपने दिमाग में रखते हुए हमें खाने के स्टॉलों पर छिना-झपटी करते देखते हैं तो क्या इसे ठीक कहा जा सकता है ??
कृपया विचार करें ।किसी को सच्चाई से ठेस पहुंची हो तो कृपया अपने आप को बदल कर लेख को पुनः पढ़ें,फिर ठेस नहीं पहुंचेगी!


अपन ने जो सोचा-समझा,आपको बता दिया।अब आपको ठीक लगे तो आप भी इस पर विचार करें।मैं और ज्यादा कुछ बोलूंगा तो फिर आप ही बोलोगे कि बोलता है !

-----------------------------------------------------------------------------------------------
लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार 
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'

Thursday 15 September 2016

हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-12
-------------------------------------------


ठूंस-ठूंस कर खाते हुए 'महावीर' को कैसे समझेंगे?
-----------------------------------------------------------

     चातुर्मास चल रहा है।गुरु भगवंतों के सानिध्य में ज्ञानार्जन अपने चरम पर है।गुरु मुख से झरते ज्ञान पुष्पों का गुलदस्ता अपने जीवन में लगा कर पूरा जीवन हम सुवासित कर सकते हैं।बहुत से जागरूक श्रावक गुरु सानिध्य में अपना जीवन धन्य कर रहे हैं। 
     चातुर्मास दरम्यान ऐसे कईं मौके आते हैं जबकि समाज का सामूहिक भोज (गाम जीमण) आयोजित होता है।इन 'गाम जीमण' में कितना खाना झूठन के रूप में अनुपयोगी हो जाता है,इस बात को छोड़ भी दें,तो विचारणीय बिंदु ये है कि क्या 'गाम जीमण' चुनिंदा 8-10 आइटमों के साथ संपन्न नहीं हो सकता? ये तथ्य है कि खाने के आइटम जितने ज्यादा होते हैं, खाने वाला सभी आईटम का 'टेस्ट' लने के चक्कर में ज़रुरत से ज्यादा खाता है और झूठन के रूप में बर्बाद भी करता है।जहां एक ओर ज़रुरत से ज्यादा खाना खुद के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करना है,वहीं झूठा छोड़ना तथा अन्न को बर्बाद करना हमारे धर्म के विरुद्ध, तथा महापाप भी है।मुझे माफ़ करे,लेकिन खेद की बात है कि ये दोनों ही काम हम जम कर कर रहें हैं,पुरे होशोहवास में कर रहे हैं और भगवान महावीर के दर्शन की धज्जियां उड़ाते हुए कर रहे हैं!
     हमारे गुरुभगवंत और बहुत से तपस्वी मात्र उतना ही खाते हैं,जितने की शरीर को आवश्यकता हैं।क्यों? क्योंकि उन्होंनें भगवान् महावीर के दर्शन को समझा है,उसे जीवन में उतारा है।दूसरी तरफ हम है जो ठूंस-ठूंस कर खाकर दुनियां भर की व्याधियों से ग्रसित भी हो रहे हैं और कहीं ना कहीं दुनिया में जहां भी भूखमरी है,उसके लिए एक हद तक पाप के भागी भी बन रहे हैं!अपरिग्रह के सिद्धांत पर विश्वास करने वाला 'जैन',पेट में भी 'परिग्रह' से नहीं चुके,तो ये सोचने की बात है!
     सामूहिक भोजों (गाम जीमण) में बनने वाले पचासों पकवानों को तिलांजलि देकर,अर्थात मात्र 8-10 आइटम तक का उपयोग कर,उस बचे धन का सदपयोग जीवदया में करके हम अपने धर्म की पालना बेहतर ढंग से कर सकते हैं,दुनियां में व्याप्त भुखमरी को कम करने में परोक्ष रूप से अपना सहयोग दे सकते हैं।कम आइटम होने से झूठा छोड़ने की भी संभावना नहीं के बराबर होती है,जिससे हम अन्न के अपमान से भी बचते हैं।
     अब समय आ गया है कि हम सभी सामूहिक रूप से इन मुद्दों पर चिंतन करें और कोई सार्थक पहल करें।
    अपन ने जो सोचा-समझा,आपको बता दिया।अब आपको ठीक लगे तो आप भी इस पर विचार करें।मैं और ज्यादा कुछ बोलूंगा तो फिर आप ही बोलोगे कि बोलता है !

-----------------------------------------------------------------------------------------------
लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार 
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'

Saturday 3 September 2016

हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-11
-------------------------------------------


'प्रभावना' के लिए ये कैसी 'भावना' ?

      चातुर्मास चल रहा है।पूज्य साधू-संतों के प्रवचनों का धर्मशालाओं में सामूहिक रूप से,शान्ति पूर्वक श्रवण कर हम अपने धर्म को गहरे अर्थों में समझ रहे हैं।ये समय पूज्य साधू-संतों के सानिध्य में रह कर ज्ञानार्जन करने और अपने विवेक को जागृत करने का है,जिसका हम सभी लाभ उठा रहे हैं।
     पूज्य साधु-संतों के प्रवचन हम जितने धैर्य और शान्ति से सुनते हैं,प्रवचनों के बाद उतनी ही हमारी अधीरता बढ़ जाती है! इस ओर हमारे पूज्य साधू-संत भी समय-समय पर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं,किन्तु अफ़सोस कि हम उस पर गंभीरता से गौर नहीं करते और अपनी करनी से स्थिति को चिंतनीय एवं हास्यास्पद बनाते रहते हैं!
     प्रबुद्ध पाठकगण मेरा इशारा समझ गए होंगे।मैं बात कर रहा हूँ 'प्रभावना' की।
     आज भी अपवादों को छोड़ कर प्रायः हर उस जगह,जहां प्रभावना बँट रही हो,हमारी अधीरता देखने लायक होती है!चौंकाने वाली बात ये है कि इस जगह आकर पैसे वालों और साधारण लोगों का भेद मिट जाता है! मैंने प्रभावना में 'पड़ा-पड़ी' और 'मारामारी' बिना किसी भेदभाव के देखी है! रूखी-सूखी खाने वालों से लेकर,खड़े-खड़े सैकड़ों रुपये उड़ा देने वालों को भी प्रभावना में समान रूप से अधीर होते हुए मैंने देखा है! शायद आपके ज़ेहन में भी इस तरह के दृश्य सहज़ ही इस वक़्त ताज़ा हो रहे होंगे,क्योंकि ये दृश्य आम है।
     क्या ये हमारे लिए शर्म की बात नहीं है? हमारे समाज की गिनती समृद्ध,संपन्न और सुशिक्षित समाजों में होती है।दान-पूण्य और जन-जन के लिए निःस्वार्थ रूप से,दिल खोलकर मुक्त हस्त से धन खर्च करने में हमारा कोई सानी नहीं है।फिर क्या कारण है कि हम 5-10-50-100 रुपये की 'प्रभावना' लेने के लिए अपनी बारी का संयम और शान्तिपूर्वक इंतज़ार करने के बजाय अधीर हो उठते हैं तथा धक्कामुक्की पर उतर आते हैं? प्रभावना का 'लिफाफा' लेने के लिए सबसे आगे निकल जाने और पूरी लंबाई में हाथ फैलाने का कारनामा हम ऐसे करते हैं जैसे कि हम कोई 'सरकारी खैरात' लूटने लाइन में लगे हैं और अगर छीन-झपट कर जल्दी नहीं लेली तो ख़त्म हो जाएगी और हम पीछे रह जाएंगे! क्या ये व्यवहार हमें शोभा देता है?
     इस चातुर्मास पर हमें इस बात पर अवश्य गौर करना चाहिए और प्रभावना लेने में अपनी अधीरता वाली आदत को सुधारना चाहिए,क्योंकि इसमें हमारे समाज के संस्कार झलकते हैं,तथा अन्य लोगों में हमारी एक छवि बनती है।
     तो आईये हम आज और अभी से ये तय करलें कि जहां भी प्रभावना वितरित हो रही होगी हम बिना अधीर हुए संयम और शान्ति से अपनी बारी का इंतज़ार करेंगे और मान-सम्मान के साथ प्रभावना ग्रहण करेंगे।आखिर हम प्रभु महावीर की सन्तान है जिन्हें समृद्धि-सम्पन्नता का वरदान है।फिर ऐसी अधीरता के अधीन भला हम क्यों रहें!
    अपन ने जो सोचा-समझा,आपको बता दिया।अब आपको ठीक लगे तो आप भी इस पर विचार करें।मैं और ज्यादा कुछ बोलूंगा तो फिर आप ही बोलोगे कि बोलता है !

-----------------------------------------------------------------------------------------------
लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार 
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'