Saturday 8 October 2016

हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है-14
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68 उपवास की तपस्या,मौत और विवाद

   हैदराबाद में 13 वर्षीय जैन बिटिया आराधना का 68 उपवास के पारने के बाद तबियत बिगड़ने से निधन हो गया।समाचारों में डॉक्टर्स के हवाले से बताया गया कि निधन की वजह आँतों का चिपकना,किडनी फ़ैल होना और हार्ट एटेक रहा।
   इस दुखद घटना से हम सभी को अत्यंत दुःख हुआ है।निधन की वजह चाहे जो रही हो,जैन समाज पर आज बाहर से कईं आक्षेप लग रहे हैं,जांच की मांग की जा रही है,मृतका के परिवार सहित वंदनीय साधू समाज पर अंगुलियां उठायी जा रही है,तप-तपश्चर्या को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है!और हमारा जैन समाज क्या कर रहा है? वो हमेशा की तरह इस दुखद घटना को भी मात्र धर्म के चश्में से देख कर मुंह पर पट्टी बाँधने का पाठ पढ़ा रहा है!!
   तप-तपश्चर्या को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि धार्मिक,आध्यात्मिक और स्वास्थ्य की दृष्टि से इनके लाभ प्रतिपादित हो चुके हैं।धर्म और साधू समाज को भी दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि इस तरह की दुखद घटना में उनकी सहभागिता हो ही नहीं सकती। परिवारजन पर आक्षेप तो सरासर मूर्खता ही है क्योंकि कौनसा ऐसा परिवार होगा जो अपनी फूल सी बेटी को ईश्वर के घर भेजना चाहेगा?
   तो फिर आखिर जिम्मेदार कौन?इसे भगवान की मर्जी कह कर चुप हो जाना,ना केवल भगवान् का अपमान करना ही होगा,बल्कि ऐसी दुखद घटनाओं की पुनरावृत्ति को भी आमन्त्रण देना ही होगा। सवाल फिर वही का वही,कि तो फिर आखिर जिम्मेदार कौन?
   मुझे माफ़ करें,लेकिन तमाम खतरे उठा कर कहना चाहूँगा कि इसका जिम्मेदार मैं हूँ,आप है,हम सभी है! धर्म और धार्मिक क्रियाओं को हमने आडंबर, अंधविश्वासइनामोंजयकारों, चकाचौंधभव्यता से जोड़ दियाजबकि धर्म और धार्मिक क्रियाएँ सिर्फ और सिर्फ अध्यात्म और दिव्यता से जुडी है।हमें चिंतन करना होगा और सोचना होगा कि धर्म और धार्मिक क्रियाएँ अच्छे तरीके से जीना सिखाती है,वे मौत के मुहाने पर नहीं पहुंचाती।मौत के मुहाने पर पहुँचते हैं हम अपनी नासमझी से,और बच्चे हमारी नासमझी और अंधविश्वास से।धर्म और धार्मिक क्रियाएँ अपने शारीरिक सामर्थ्य के अनुसार की जाए तो अकल्पनीय लाभ पहुंचाती हैं और इनका ध्यान नहीं रखा जाए तो हैदराबाद जैसी दुखद घटनाएं घटती है!
   बच्चे नादां है।उनकी सोच-समझ सिमित है।उनमें धर्म और धार्मिक क्रियाओं के प्रति एक परिपक्व और वास्तविक समझ पैदा करने का जिम्मा हम सभी का है,जिससे अमूमन बचा जाता है,क्योंकि यहां फिर वही आधी अधूरी, अधकचरी सोच के साथ धर्म के अपमान का मुद्दा उछाल दिया जाता है।
   मुझे क्षमा करें,13 वर्ष की उम्र कोई मरने की उम्र नहीं होती है।ये उम्र धर्म और धार्मिक क्रियाओं को उनके वास्तविक रूप में समझने-जानने और फिर बड़े और परिपक्व हो कर पुरे समाज को समझाने जितना ज्ञान पाने के लिए लग जाने की होती है,हो सकती है।कोई मासूम 'आराधना' अगर आराधना करते हुए कच्ची उम्र में स्वर्ग सिधार जाए और हम धर्म की दुहाई देकर मुंह पर पट्टी बाँध कर बैठ जाएँ या दूसरों को बैठने का उपदेश देते रहें तो फिर हमें अपनी चेतना को झँझोड़ने,जगाने की ज़रूरत है,धर्म और धार्मिक क्रियाओं को उनके सही रूप में समझने-समझाने,करने-कराने की जरुरत है।धर्म की आड़ में मूर्खता भरी चुप्पियों ने धर्म का पहले ही बहुत नुकसान कर दिया है।धर्म को उसके सही रूप में बचाने के लिए समाज के हित चिंतकों को सत्य के साथ मुखर होना ही पडेगा,अन्यथा समाज की तरफ बाहरी लोगों की उठती अंगुलियों को रोक पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकीन भी होगा!
    अपन ने जो सोचा-समझा,आपको बता दिया।अब आपको ठीक लगे तो आप भी इस पर विचार करें।मैं और ज्यादा कुछ बोलूंगा तो फिर आप ही बोलोगे कि बोलता है !

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लेखक- अशोक पुनमिया
लेखक-कवि-पत्रकार 
सम्पादक-'मारवाड़ मीडिया'